नैनीताल और हिन्दी फिलमवाले

[ पिछले अंक में आपने नैनीताल के आसपास फैले प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द लिया। डोटियाल यानि नैपाली मजदूरों के बारे में भी पढ़ा। आइये आज नैनीताल के कुछ और दृश्यों का आनन्द लेते हैं। ]
nainital-flats-from-ropewayयों शाम को मालरोड गुलजार हो जाती थी। लोग तल्लीताल-मल्लीताल की सैर पर निकल पड़ते। जगह-जगह आते-जाते परिचित दूर से ही हाथ सिर की सीध में उठा कर ‘नमस्कार’ की मुद्रा में जोड़ कर इशारे से ही दोनों हथेलियां हिला कर बिना बोले पूछ लेते और दाज्यू, सब ठीक ठाक?’ और, आगे बढ़ जाते। तल्लीताल, मल्लीताल बाजारों, नैनादेवी मंदिर और फ्लैट का चक्कर लगा कर वापसी में मालरोड से ही लौटते या एकांत पसंद लोग ताल के दूसरी ओर ठंडी सड़क से पाषाण देवी के पास माथा टेक कर लौट आते। तब ऐवरेस्ट और इंडिया होटल की बगल में खाली भीड़ा हुआ करता था जिसके सामने लोहे के तारों की रेलिंग के पास एक बैंच पड़ी रहती थी।

बीच माल पर नगरपालिका पुस्तकालय प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने वाले विद्यार्थियों और बड़े बुजुर्गों की प्रिय जगह थी। वहां बिल्कुल सन्नाटे में लोग अखबार और किताबें पढ़ रहे होते थे। उस दौर में स्थानीय डी एस बी कालेज से हर साल कई विद्यार्थी आइ.ए.एस., आइ.पी.एस., पी.एफ.एस., पी.सी.एस. और आर्मी में चुने जाते थे। वे लोग मालरोड में घूमते-घूमते सवाल-जवाब करके जनरल नॉलेज की तैयारी पूरी कर लेते थे। पुस्तकालय से थोड़ा आगे माल के ऊपर सैक्लेज बेकरी और ‘पर्वतीय’ अखबार का दफ्तर होता था जहां लिखने-पढ़ने के शौकीनों का जमावड़ा लगता था। गर्मियों का सीजन शुरू हो जाने पर ‘पर्वतीय’ में ‘लो, फिर बहारें आईं’ कालम शुरू किया जाता था, जिसे पहले पत्रकार कैलाश साह लिखते रहे और बाद में मैं। इसमें हम आया की अंगुली पकड़ कर रोते बच्चे और चुस्त कपड़ों में सजी-धजी, गोद में डॉगी को लेकर सैर करती नई माताओं जैसे दृश्यों की बानगी पेश करते थे। सेंट्रल होटल के सामने ‘चौधरी कॉफी हाउस’ होता था जहां शानदार मलाईदार कॉफी मिलती थी। उससे आगे ‘लक्ष्मी’ सिनेमा हॉल था। मैंने ‘गाइड फिल्म’ उसी में देखी थी। nainital-public-library

आगे नुक्कड़ पर था नारायन बुक कॉर्नर जिसमें लोग खड़े-खड़े घंटों पढ़ते रहते। नारायन तिवारी जी किताबों और नई पत्रिकाओं के बारे में बड़ी गंभीरता से बताते रहते। आगे ‘कला मंदिर’ था जो अपनी फोटोग्राफी के लिए प्रसिद्ध था। बगल में एंबेसी रेस्तरां खुला तो उसके लंबे लैंपशेडों से मेजों पर हल्की रोशनी के गोले बनते थे और खामोशी में कुछ ऐसे गीत गूंजते थे…‘ये नयन डरे-डरे,ये जाम भरे-भरे…’ या ‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं’। आगे रिक्शा स्टैंड के निकट फ्लेटीज रेस्त्रां था जिसमें हमारी जेब जाने नहीं देती थी। हां, बगल के स्टेंडर्ड रेस्टोरेंट में अक्सर चर्चा करते हुए चाय पीते थे। थोड़ा ऊपर किताबों की समृद्ध दूकान ‘मॉडर्न बुकडिपो’ था। मल्लीताल बाजार में प्रवेश करते समय दाहिनी ओर घड़ी की दूकान में शायद बाघ की खोपड़ी में दांतों के बीच दबी घड़ी दिखाई देती थी। बांई ओर रामलाल एंड संस के शोकेसों में सजे चुनिंदा कपड़े हम विद्यार्थी बड़ी हसरत से देखते थे। बड़ा बाजार की सजी-धजी दूकानों पर नजर डालते हुए हम मामू के रेस्टोरेंट में पहुंचते। मासिक भुगतान के आधार पर खाने की सुविधा थी। बाद में बीच की गली के बिष्ट रेस्टोरेंट में खाने लगे। चीन के साथ लड़ाई छिड़ गई तो उन्होंने रेस्टोरेंट के बाहर सबसे पहले तख्ती लटका दी थी-‘सोमवार को विजय व्रत’। अपनी मिठाई की दूकान पर लाल सिंह सीना फुला कर कहते रहते थे-“मैं धन्य हूं, मेरा भतीजा देश के काम आया। ऐसे भाग्य सब के कहां होते हैं साब। ये देखिए प्रधानमंत्री के हाथ का लिखा पत्र।” शाम को चार बजे बगल की पतली गली में ‘जलेबा’ बनने लगता जो दो-एक घंटे बाद बंद हो जाता। लोग कहते थे, इस दूकान में अंग्रेजों के जमाने से ये मोटी जलेबियां बन रही हैं। दो-तीन घंटे तक जलेबा बना कर बेच लेते हैं और “बाकी क्या करना ठैरा? दाल-रोटी चल जाती है। बहुत है! कोई बिजनेस जो क्या करना है?”

और हां, तब फिल्म वाले भी शूटिंग के लिए नैनीताल खूब आया करते थे। ‘गुमराह’ की शूटिंग के दिनों में हम लोग डी एस बी में कक्षाओं में पढ़ रहे होते थे और नैनीताल की फिजां में यह गीत गूंज रहा होता था…‘इन हवाओं में, इन फिजाओं में, तुमको मेरा प्यार पुकारे हो’….सुनील दत्त शाम को मालरोड पर शहर के विद्यार्थियों और अन्य लोगों के Gumrah_1963_shot-in-nanital साथ घूम रहे होते थे। लेकिन, जॉनी वाकर आते तो कैपिटल सिनेमा के ऊपर रेस्त्रां के किनारे बैठते। नीचे लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी। ‘भीगी रात’ की शूटिंग के लिए अशोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार आए थे। नैनीताल में रूके हुए थे। वहीं शूटिंग चल रही थी। ‘वक्त’ की शूटिंग बोट हाउस क्लब के सामने ताल में हुई थी। शशि कपूर, शर्मिला टैगोर आदि कलाकार आए हुए थे। पालदार नाव में शायद ‘दिन हैं बहार के, तेरे मेरे प्यार के’ गाने की शूटिंग चल रही थी कि नाव तिरछी हुई और शर्मिला टैगोर पानी में टपक पड़ी। तभी एक छात्र ने हीरो के अंदाज में छलांग लगा कर जांबाजी दिखाई और शर्मिला टैगोर को ऊपर खींच लिया। फिल्म की यूनिट ने वाहवाही की और आभार जताया।

गर्मियों के सीजन में शहरों से भारी भीड़ चली आती थी। हम लोग उन दिनों मालरोड छोड़ कर ऊपर स्नो व्यू, चीनापीक, गोल्फ फील्ड या टिफिन टॉप की ओर निकल जाते थे। स्नो व्यू में तब न कोई दूकान थी, न मकान। वहां थी बस सीमेंट की एक बैंच, दूर पहाड़ों को देखने के लिए एक दूरबीन, घने हरेभरे पेड़ और एकांत। वहां बैठ कर बहुत सुकून मिलता था। एक साल ऊंची पहाड़ियों पर 5 मई को बर्फ गिर गई थी! हम स्नो व्यू जाकर उस बैंच में जमी ताजा बर्फ की मोटी परत पर बैठे थे।

लेकिन, वर्षा ऋतु में हमारे नैनीताल का पूरा दृश्य बदल जाता था। मालरोड में छाते ही छाते दिखाई देने लगते। कुछ लोग गमबूट और बरसाती में आते-जाते दिखते। ऊपर पहाड़ों से कोहरा भाग कर आता और शहर की हर चीज को छूकर समेट लेता। मालरोड, ठंडी सड़क या पगडंडियों पर इतना घना कोहरा छा जाता कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था। घने कोहरे की भीनी फुहार चेहरे को भिगा देती थी। वह घरों, बाजारों, होटलों और यहां तक कि खिड़कियों से हमारी कक्षाओं तक में चला आता। फिर अचानक सिमट कर छंटने लगता और ऊपर पहाड़ों की ओर लौट जाता। सहसा बारिश होने लगती और लोग फिर छाता तान लेते। बारिश की बूंदें टीन की छतों पर टकराने के कारण एक अलग किस्म का वर्षा-संगीत पैदा होता था। हमें वह लोरी-सा सुनाई देता था। और हां, वर्षा ऋतु में तीनों ओर खड़े पहाड़ों से निकली संकरी सीढ़ीदार निकास नालियों से कूदता-फांदता वर्षा जल कल-कल छल-छल करता नीचे ताल में पहुंच जाता था। इसलिए कहीं पहाड़ के गिरने-धसकने का डर नहीं रहता था। ताल डबाडब भर जाता और ज्यादा भरने पर तल्लीताल रिक्शा स्टैंड के आसपास मालरोड तक चला आता। तब डॉट पर ताल के गेट खोल कर पानी बाहर बहने दिया जाता। वह तेजी से सुसाट-भुभाट करता तेजी से अशोक होटल की बगल से नीचे को बहने लगता।

अक्टूबर सीजन धीर-गंभीर सैलानियों का सीजन कहलाता था जिसमें कोई भीड़भाड़ और तड़क-भड़क नहीं होती थी। अधिकांश सैलानी बंगाली होते थे जो धोती-कुर्त्ता पहने, शॉल ओढ़े कुछ सोचते-विचारते सड़कों पर चल रहे होते थे। मेरे लिए मरीनो होटल से इंडिया होटल तक मालरोड में खड़े चिनार के पेड़ों की पत्तियां शरद ऋतु का समाचार लाती थीं। मैं कई बार रात में मालरोड पर निकल आता था जहां चिनार की पत्तियां मेरे आसपास हवा के साथ दौड़ लगाती थीं। ताल से उठने वाली लहरों के थपेडे़ किनारों पर छपाक्…..छपाक् टकराते। वह अद्भुत दृश्य होता था।

सर्दियों में स्कूल-कालेज बंद हो जाने पर प्रवासी पक्षियों की तरह शहर के सैकड़ों विद्यार्थी अपने-अपने घरों को लौट जाते थे। होटलों में सन्नाटा छाने लगता था क्योंकि सर्दी के मौसम में तब सैलानी बहुत कम आते थे। शाम ढलने के बाद सड़कें भी सूनी-सूनी लगने लगतीं। कुछ साहसी लोग कोट, पेंट, स्वेटर, टोपी दस्ताने कस कर मुंह से भाप का धुवां छोड़ते मालरोड पर घूमने का अपना नियम निभा रहे होते थे। ज्यादातर लोग सग्गड़ या अंगीठी में कोयले के गोले तपा कर आग ताप रहे होते थे। उन सर्द रातों में कहीं दूर से सिर्फ सियारों की हुवां-हुवां या कुत्तों के कुकुआने की आवाज सुनाई देती थी। बर्फ गिरने पर प्रकृति के उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए गर्म कपड़ों में लदे-फंदे चंद सैलानी पहुंच जाते। बाहर से आए हुए वे लोग ‘पाए हुए से’ लगते थे।

वसंत आता और पंछियों से विद्यार्थी लौट आते। मौसम धीरे-धीरे गरमाने लगता और सैलानी आने लगते। सीजन की फसल फिर लहलहाने लगती। इस फस्ले-बहार से हमारा शहर फिर गुलजार हो जाता। हर साल, नैनीताल।

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5 Thoughts to “नैनीताल और हिन्दी फिलमवाले”

  1. uttarakhandi bhayi ko namshkar pahar ki jawani & pahar ka pani rokna hai hamara adhikar

  2. mahipal singh mehra

    uttrakhand danjyo namskar apan phak hwa pani kai aur ped kai bachiya bhai rakhan chan danjyo

  3. Alok Sharma

    Dear Mewariji,
    A wonderful writeup indeed! makes me very….very nostalgic, about flatties resteurant, I remember to enter that place with three friends in 1969 and we, just had a cup of coffee each, the bill was Rs,70/-, 70% of my monthly expenses including hostel, messing, fee and other expenses. This had completely ruined my budget for coming three months and my friends commented, 'Flatties really flattened us'
    Keep posting, love your writings.
    Alok

  4. sanjeev vaish

    बहुत सुंदर एवं अद्भुत ………….
    आप ने मेरी याद ताज़ा करदी ,१९८० में बिरला विद्या मंदिर में पढने आया तब से मेरा दिल यहीं छूट गया मैं शारीरिक रूप से allahabad में हूँ लेकिन दिल में नैनीताल ही रहता है |

  5. i could really imagine those scenes the way you depicted……
    great job !

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